मज़ा तो तब है
जब अंखियां हो चारजब दोनो में हो कऱार
जब सावन की पहली हो फुहार
जब प्यार का हो इज़हार
जब मिलने को वो भी हों बेक़रार
मज़ा तो तब है
जब खुद पे हो ऐतबार
जब ख्वाबों में हो मंज़िल हर बार
जब पैरों की बेड़ियाँ हो जा़र जा़र
जब मंज़िल को हो अपना इन्तज़ार
जब ऊपर वाला भी हो मेहरबान
मज़ा तो तब है
जब अपनों और परायों की हो जाए पहचान
जब दोस्तों और दुश्मनों को हम पायें जान
जब हर मिलने वाले को दे पाते 'अपने' का नाम
जब आस्तीन के सांपो का बुरा हो अंजाम
मज़ा तो तब है
जब रंगो की हो फुहार
और रंग हो चटकदार
जब दीपो की हो कतार
जब बागों में हो बहार
जब हर दिन हो एक नया त्योहार
जब कौमों में हो आपसी प्यार
मज़ा तो तब है
जब जनता को सियासी चालबाज़ियां आ जायें समझ
जब मुफलिसी, नफरत और अलगाववाद का हो अंत
जब विश्व शांति का बन जाये सबब़
जब दरियादिली भी हो एक मज़हब
मज़ा तो तब है.........
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