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Saturday 24 June 2017

हमारी आह में शायद..........

हमारी आह में शायद असर बाक़ी नहीं
बारिश इसीलिए जल्दी आती नहीं

उम्मीदें हर सुबह ताज़ी अंगड़ाईयां लेतीं
जम्हाईयां बदलते मौसम का शुबहा करातीं
मासूम आंखें, ढके आसमान को तकती हैं
पर बारिश तो अपने शहर जल्दी आती नहीं

बादलों को किसी और गली, किसी और शहर जाना था
उन्हें किसी और छत का कर्ज़ निभाना था
हमने आँखों से उमड़ते दरिया को रोके रखा
पर बारिश तो हमारे पते पर बेदर्दी आती नहीं

बादल दिखते हैं मस्ताने, मतवाले
पर होते हैं सख्त सयाने
झलक दिखला के सरक लेते हैं
उस घर को पहले भिगोते हैं
जिसमे होते हैं दिलजले आशिक़ पुराने
हमारी आह में शायद असर बाक़ी नहीं है
बारिश इसीलिए जल्दी आती नहीं है

चिलचिलाती धूप, गर्म हवाऐं, मुरझाते फूल
तलहटी झलकाते ताल,
पानी को तरसते खेत, मरुस्थल में सुलगती रेत
सभी की है गुहार, मेघ अब तो बरस जाओ
लेकिन जो बादल को बरसने पर मजबूर कर दे
वो दिल में निकलती, आह तो ढूंढ के लाओ
हमारी आह में शायद असर बाक़ी नहीं है
बारिश इसीलिए जल्दी आती नहीं है

हमारी आह में शायद......... 

Saturday 10 June 2017

क्या है वो अजनबी, अनजाना, अनूठा.......

क्या है वो अजनबी, अनजाना, अनूठा
थोड़ा छिपा, थोड़ा ज़ाहिर, कुदरती अजूबा

धरती और गगन के मिलन के पार
उस खूबसूरत से क्षितिज के बाद
अनदेखी अनसुनी वादियों में गूंजता
थोड़ा छिपा, थोड़ा ज़ाहिर, कुदरती अजूबा

इन्द्रधनुष जहां पैदा हुआ करते होंगे
बादल जहां जन्म लेते होंगे शायद
आसमां से ऊपर, कोई चमत्कारी नज़ारा
थोड़ा छिपा, थोड़ा ज़ाहिर, कुदरती अजूबा

उजालों से उजला उजाला, अँधेरे से काला अंधेरा
गहराईयों से गहरी गहराईयां, ऊंचाइयों से ऊंची ऊंचाईयां
नापी जा सकने वाली दूरियों से दूर
थोड़ा छिपा, थोड़ा ज़ाहिर, कुदरती अजूबा

सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी
असंभव लेकिन चिर सम्भव
मिटता नहीं, सिमटता नहीं
दिखता नहीं, लेकिन गायब नहीं
थोड़ा छिपा, थोड़ा ज़ाहिर, कुदरती अजूबा

नवीनता का सर्जक भी, पालक भी, संहारक भी
ढूंढो तो जीवन गुज़र जायें, देखो तो क्षण में पा लो
फलसफों की हद से दूर, एक ही है वो हुज़ूर
थोड़ा छिपा, थोड़ा ज़ाहिर, कुदरती अजूबा

क्या है वो अजनबी, अनजाना, अनूठा
थोड़ा छिपा, थोड़ा ज़ाहिर, कुदरती अजूबा

Monday 29 May 2017

जीने में कुछ कमी सी क्यूँ है.......,

हवा आज कल कुछ थकी सी है, 
शाखों पे पत्ते भी भारी से लगते हैं 
सांसे, हालांकि मजे से आ जा रहीं हैं, 
फिर भी जीने में कुछ कमी सी क्यूँ है 

हँसा करते थे जिन बातों पे, ठहाके लगा कर 
आज हल्की सी मुस्कान भर बची क्यूँ है

तूफान उठा लेते थे, हल्के से नफे-नुकसान पर 
आज सब कुछ लुटा कर भी, इत्मीनान से क्यूँ है

वक़्त के साथ, कदम मिला के चलना थी जिनकी फितरत 
उनकी दीवार पे टंगी घड़ी में, समय रूका सा क्यूँ है 

ज़रा ज़रा से सपने देखे, गिनती के कुछ अरमान पाले
चंद सुलझे हुए रिश्ते और सुकून के कुछ पल मांगे 
ज्यादा तो नहीं चाहा था, ऐ जिंदगी तुझसे 
फिर भी आज ये दामन, सूना सा क्यूँ है

तेरी तारीफें हज़ार, तेरी रहमतें बेहिसाब
तुझसे शिकवा नहीं, तेरे तरीके लाजवाब
फिर भी जब करता हूँ बात, तन्हाई में तुझसे 
न जाने आंखों में, इक नमी सी क्यूँ है 

हवा आज कल कुछ थकी सी क्यूँ है 
जीने में कुछ कमी सी क्यूँ है 

Thursday 18 May 2017

फूलों की खुशबु लिए.........

फूलों की खुशबु लिए, चांदनी में चमकते देखा
ज़िंदगी तुझे प्यार के चटक रँग, फिज़ा में भरते देखा

अजनबी चेहरों से हँस के मिले, प्यार बढ़ा के देखा
यारों से दिल मिलाया, दोस्ती का फर्ज़ निभा के देखा

देखा कि बहारों में खिले फूलों से, गुलज़ार होती है बगिया
ज़िंदगी तेरी रंगीन तबियत को, क़रीब से रंग बदलते देखा

जब भी हाथ बढ़ाया लेकिन, तेरे खुशरंग चेहरे की ओर
तुझे जाने क्यूँ, मुझसे नज़रें बचाते देखा

तेरे प्यार का अहसास तो हमेशा से था
उसे खुल कर सामने आने से झिझकते देखा

ग़र प्यार सच्चा था ऐ ज़िन्दगी, तो इज़हार में इतनी देरी क्यूँ
इंतजार के आलम में हमने, मौसमों को बदलते देखा

खुशियों की मंज़िल तक जाने के रास्ते तो मिले लेकिन
मंज़िल तक पहुंचने में हमने, मंज़िलों को बदलते देखा

तेरे नखरों, तेरी चालाकियों के सामने
मैं मजबूर हूँ, मायूस नहीं, हताश नहीं
अपनी आशाओं को तसल्ली से सहेजा है ऐ ज़िन्दगी
सावन में देर से ही सही, बादलों को बरसते देखा

राहें जब चलते चलते खुद ही थकने लगें
मोड़ जब मनमानी करने को मचलने लगें
ऐसे में तुम मेरी रहबर बन जाओ ज़िंदगी
तुम्हारा साथ से मंज़िलों को पास आते देखा

फूलों की खुशबु लिए, चांदनी में चमकते देखा
ज़िंदगी तुझे प्यार के चटक रँग, फिज़ा में भरते देखा.....


Wednesday 17 May 2017

आज सुबह फिर कुछ.........

आज सुबह फिर कुछ थकी सी थी
रात शायद कुछ जगी सी थी

सितारों से कई गिले शिकवे थे करने
चाँद से भी तो गुफ्तगू बाक़ी थी

जुगनुओं से रौशनी उधार लेना था बाक़ी
अपने सपनों से भी निभानी वफादारी थी

महकती यादों के मोतियों को था पिरोना
दिल में छिपी तस्वीर, ज़ाहिर होना बाक़ी थी

इससे पहले कि अफसानों में हमारे नाम चलें
प्यार की मंज़िल तो अभी पाना बाक़ी थी

छिप के मिलना, मिल के छिपना, ये खेल अब और नहीं
दीवानापन दुनिया पर ज़ाहिर करने की रस्म बाक़ी थी

हिम्मत, जोश, दीवानगी या झिझक
ऐसा कुछ था, जिसमे क़सर बाक़ी थी

न जाने कब रात गयी, कब भोर हुई
आंखों पर नींद की दस्तक, अब भी होना बाक़ी थी

आज सुबह फिर कुछ थकी सी थी
रात शायद कुछ जगी सी थी......

Wednesday 10 May 2017

मुश्किलें जब भी मिलें, मुस्कुरा लेना........

मुश्किलें जब भी मिलें, मुस्कुरा लेना
मुस्कुराना आनंद से जैसे
माशूक ने हंस के इकरार किया हो
मानो आँखों ने ज़न्नत का दीदार किया हो
मुस्कुराना ज़रूर क्यूंकि, मुश्किलें भी घबरा जाती हैं
जब बन्दे के चेहरे पे मुस्कुराहट आ जाती है

अंधियारा जब भी हो,  एक दीपक जला लेना
जलाना विश्वास से जैसे
सूरज अपना प्रकाश फैला रहा हो
मानो उजाला अंधेरे को निगलने की ताक में हो
दीपक जलाना ज़रूर क्यूंकि, घने अंधेरे भी छंट जाते हैं
जब एक नन्हा सा दीपक अपनी रौशनी बिखेर जाता है

नींद जब गहरी आने लगे, एक सपना सजा लेना
सजाना प्यार से जैसे
जीवन की लौ प्रज्वलित हो रही हो
मानो आकांक्षाओं की नदी बह निकली हो
सपना सजाना ज़रूर क्यूंकि, नए रास्ते खुल जाते हैं
जब सपना कोई सपना नया दे जाता है

उम्मीद जब टूटने लगे, एक नयी उम्मीद जगा लेना
जगाना ऐतबार से जैसे
सहस्रों हाथ साथ हो लिए हों
मानो आशाओं के नये बीज अंकुरित हो रहे हों
उम्मीद जगाना ज़रूर क्योंकि, आंदोलन खड़े हो जाते हैं
जब उम्मीद कोई दिल के बेहद करीब हो जाती है

तूफान जब तेज़ आने को हो, कश्ती दरिया में उतार देना
उतारना जज़्बे से जैसे
कश्ती उन्माद से टकराने को तैयार हो
मानो हवाऔं की दिशा मोड़ने को बेकरार हो
कश्ती उतारना ज़रूर क्योंकि, लहरें रास्ता छोड़ देती हैं
जब कश्ती कोई तूफ़ान को चुनौती दे रही होती है  

हार जब सामने दिखे, एक संघर्ष नया अपना लेना
अपनाना दृढ़ता से जैसे
जीवन अपने नए मायने खोज रहा हो
मानो पत्थरों पे नयी लकीरें खींचने को तैयार हो
संघर्ष अपनाना ज़रूर क्योंकि, हार भी सबक दे के जाती है
जब संघर्ष कोई ईमानदारी से निभा रहा होता है

मुश्किलें जब भी मिलें, मुस्कुरा लेना........
मुश्किलें जब भी मिलें, मुस्कुरा लेना........

Sunday 7 May 2017

जब भी देखा है तुम्हे...........

धूप में निकले तो, साये को गायब पाया
जब भी देखा है तुम्हे, अपना सा पाया

प्यार के चटक रंगों से तुम्हे रंग के देखा
महबूब के हाथों में मेंहदी सा रचा पाया

जवानी के जानदार जोश मे भर के देखा
मोहब्बत की किताब के पन्नों में दबा पाया

नन्हे बच्चे की किलकारियों में खो कर देखा
लड़कपन की सुनहरी यादों में भटकता पाया

लड़खड़ाते हुए, महख़ाने से निकलता देखा
साक़ी के दरो दीवार से तौबा करता पाया

जीवन की भागम भाग में मशगूल देखा
खुद को सकून की तरफ भागता पाया

रेल की पटरियों सा साथ साथ चलते देखा
अपना, न मिल सकने वाला साथ, याद आया

दूर तक चिरागों की कतारें जलती देखीं
फिर कोइ मसीहा,कोई पैगंबर याद आया

जब भी देखा है तुम्हे, सजदे मे झुकते हुए
खुद को भी दुआ में हाथ उठाते पाया

धूप में निकले तो, साये को गायब पाया
जब भी देखा है तुम्हे, अपना सा पाया

Thursday 4 May 2017

तेरे होने या न होने से........

कुछ फ़र्क तो पड़ता जीने मे
तेरे होने या न होने से

रात ही रहती, सुबह न होती
सूरज रस्ता भूल ही जाता
बागों से हरियाली, फूलों से खुशबु
गायब ही हो जाती

पक्षी पेड़ों की टहनीयों पर चहकना बंद कर देते
सागर की लहरें किनारों से टकरा कर दम तोड़ना छोड़ देतीं
हवाऐं बंद हो कर जीवन देने की तासीर भूल ही जातीं
नदियां तटों के बीच बहने की मर्यादा तोड़ ही देतीं

दीवारें चल कर मुझ तक आतीं
छतें सरक कर नीचे आ जातीं
ज़मीन भी या तो चलने लगती
ऐसा कुछ भी हुआ नहीं, तेरे न होने से

कुछ फ़र्क तो पड़ता जीने मे
तेरे होने या न होने से

दिल तो वैसे ही धड़ल्ले से धड़कता है
सांसे भी हाइवे की गाड़ियों सी आती जाती हैं
बादल पूरी बेशर्मी से गरजते और बरसते हैँ
मौसमों का बदलना बिना रुके चला जाता है

मंदिरों से घंटियों की, मस्जिदों से अज़ान की
गली में रेहड़ी पर सपने बेचते खिलौने वाले की
घर के पास की लाइन पर से गुज़रती रेलगाड़ी की
रोज की तरह आज भी आती ही हैं अवाज़ें

बारिश के बाद कागज़ की कश्तीयां चलाते ही हैं बच्चे
गर्मियों में आम के दरखतों पे पत्थर मारते ही हैं
सावन में झूले अब भी पड़ते ही हैं
बच्चे पतंग लूटने आज भी दौड़ते ही हैं

होली के रंग अब भी रंगीन है पहले से
दिवाली की रौशनी भी कम नहीं हुई है
जीवन चक्र तो अविरल चल रहा है
थमा नही ये क्षण भर की, तेरे न होने से

कुछ फ़र्क तो पड़ता जीने मे
तेरे होने या न होने से.......

Sunday 23 April 2017

खुद अपनी तक़दीर लिख सके...... ........

तक़दीर संवारने की उम्मीद में,
उम्र गुज़र जाती है, सजदे में ख़ुदा के
खुद अपनी तक़दीर लिख सके
वो तरकीब इज़ाद कर

शीशा तो टूट जाता है
पत्थर की चोट से
जो पत्थर को तोड़ सके
वो शीशा तलाश कर

कश्तीयां अक्सर डूबा करती हैं
तूफान के थपेड़ों से
जो खुद तूफ़ान पैदा कर सके
वो कश्ती तैयार कर

ज़िंदगीयां तबाह होते देखीं हैं
दुश्मनों के हाथ से
जो दुश्मनी करके भी, ज़िंदगी बना दे
वो दोस्त तलाश कर

ख्वाबों को हक़ीक़त मे
तब्दील होते देखा है
जो ख्वाबों से भी बेहतर हो
वो हक़ीक़त तैयार कर

मंदिरों और मस्जिदों में
ख़ुदा के बंदे तो खूब मिलते हैं
ख़ुदा से मिलने का रास्ता दिखा दे
वो बंदा तलाश कर

मुफ्त का ज्ञान बघारने वाले
हज़ार मिलते होंगे
कमजोर पर ज़ुल्म सबसे बड़ा अपराध और
मज़लूम की मदद सबसे उम्दा कर्म
ये हक़ीक़त जो समझा सके
वो ज्ञानी तलाश कर

राह की मुसीबतों से घबरा कर
अक्सर हौसले पस्त हो जाया करते हैं
जो मुसीबतों में से राह बना ले
वो हौसला तैयार कर

बड़ी हस्तियों से मिसालें ले कर
हज़ारों जिंदगीयां संवर गईं
जो खुद एक मिसाल बन जाए
वो ज़िंदगी दिखा जी कर

ये तो समझे कि
तमाम उम्र का लेखा जोखा
और नज़र आयें जन्नत के नज़ारे..
किसी मासूम बच्चे की हंसी में
जो जन्नत देख सके
वो नज़र तैयार कर

खुद अपनी तक़दीर लिख सके
वो तरकीब इज़ाद कर 

Thursday 6 April 2017

मत पूछो कितने .....

हमें राहों में, थका हुआ मुसाफिर नहीं दिखता
उसके माथे से बहता पसीना नहीं दिखता
गोद में मचलता हुआ बालक नहीं दिखता
मुसीबतों से हारता इंसान नहीं दिखता
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
खुद के इश्क़ में कैसे जकड़े गए हैं हम
मत पूछो कितने मगरूर हो गए हैं हम

हमें मोड़ पर वो मासूम बच्चा नहीं दिखता
उसके माथे पे चमकता विश्वास नहीं दिखता
आँखों में झलकता बचपन नहीं दिखता
सबके लिए एक सा प्यार नहीं दिखता
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
बड़े होने की होड़ में अदने से हो गये हैं हम
मत पूछो कितने मगरूर हो गए हैं हम

हमें ढलता सूरज और चमकता चांद नहीं दिखता
कुदरत का वो गज़ब शाहकार नहीं दिखता
वो अंकुरित होता पौघा नहीं दिखता
पत्तों पर बिखरी ओंस नही दिखती
हमें अपने बंधन, अपनी बेड़ियां नही दिखती
अपने आप पे टिकी अपनी आंखें नही दिखती
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
जीवन की दौड़ में सहमे से रह गए हैं हम
मत पूछो कितने मसरूफ़ हो गए हैं हम

हमें धर्म,  जाति के नाम पे बांटने वाले नहीं दिखते
भाषा और छेत्र के नाम से बहकाने वाले नहीं दिखते
वो स्वर्ग से सुन्दर,  मातृभूमि नहीं दिखती
अपना वतन,  अपनी मिट्टी नहीं दिखती
एक ही गुलसितां की बुलबुलें नही दिखती
एक ही गंगा की,  मौजें नही दिखती
इस कदर इन ठेकेदारों के हाथ बिक गये हैं हम
अपने ही घर मे चहुँ ओर से घिर गए हैं हम
मत पूछो कितने मजबूर हो गए हैं हम

हमें  सिमटती नदियां और सिकुड़ते जंगल नहीं दिखते
वो पिघलते ग्लेशियर और उफनते सागर नहीं दिखते
बंजर होती ज़मीनें और खाली खलिहान नहीं दिखते
सदियों से कायम, मौसम के ये बदलते मिजाज नही दिखते
प्रगति पथ पर अराजक रूप से कदम बढ़ाते हम
निरंतर निर्लज्ज निरंकुशता ओढ़े हुए हम
निहित स्वार्थों की चादर मे लिपटे हुए हम
मत पूछो कितने  खु़दगर्ज़हो गए हैं हम

मत पूछो कितने ..... 

Saturday 25 March 2017

ऐ दिल ना पूछ अरमान मेरे..........

ऐ दिल ना पूछ अरमान मेरे
आसमां पर लिख के नाम दिलबर का
उसे रौशनी से नहलाना चाहता हूं

अरमान तो है कि
एक शहर हो अपनो का
सीधे और सादे सपनों का
बेघर जहां फुटपाथ पे सोते ना हों
झुग्गियां जहां बेबसी समेटती न हों
शहर एक ऐसा ढूंढ कर
तस्वीर में उसे कैद कर
दीवार पर टांगना चाहता हूं
ऐ दिल ना पूछ अरमान मेरे

अरमान तो है कि
एक घर हो अपना सा
दरवाज़ा हो मोहब्बत सा
और दीवारें हों एतबार सी
बस्ते हों खुशनुमा अहसास जहां
जज़्बात ही बन जायें पहचान जहां
रिश्ते वहां सिर्फ़ नाम के न हों
अपने जहां सिर्फ़ काम के न हों
घर एक ऐसा ढूढ़ कर
आंखों मे उसे बसा कर
दिल में उतारना चाहता हूं
ऐ दिल ना पूछ अरमान मेरे

अरमान तो है कि
एक उम्र हो बचपन सी
अल्हड़ सी,  बेफिक्री सी
मासूमियत जिसमे बिखरी हुई हो
कल्पना की जहाँ कोई सीमा न हो
अपने परायों में भेद न हो
ऊंच - नीच का द्वेष न हो
मंज़र एक ऐसा सजा के
आँखों में बसाना चाहता हूं
ऐ दिल ना पूछ अरमान मेरे

 ऐ दिल ना पूछ अरमान मेरे
आसमां पर लिख के नाम दिलबर का
उसे रौशनी से नहलाना चाहता हूं

Friday 24 March 2017

कभी हँस कर, कभी रो कर.....

कभी हँस कर, कभी रो कर
जीया है तुम्हे ऐ ज़िन्दगी

किसी की मुस्कुराहट पे जी कर
किसी के शर्माने पे मर कर
किताबों में रखे उन सूखे फूलों की
कसम ले कर
कभी जी कर, कभी मर कर
जीया है तुम्हे ऐ जिंदगी

किसी के वादों पे जी कर
किसी के निभाने पे मर कर
उन सहमी हुई मुलाकातों की
यादों को सहेज कर
कभी जी कर, कभी मर कर
जीया है तुम्हे ऐ जिंदगी

किसी की नफरत में जी कर
किसी के प्यार में मर कर
डायरी के पन्नों पर स्याही के बिखराव को
एक कहानी की शक्ल दे कर
कभी जी कर, कभी मर कर
जीया है तुम्हे ऐ जिंदगी

किसी के सितम पे जी कर
किसी की रहमतों पे मर कर
उन खामोश मजबूरियों के
अहसास को समेट कर
कभी जी कर, कभी मर कर
जीया है तुम्हे ऐ जिंदगी

किसी से बिछड़े हैं जी कर
किसी से मिलेंगे मर कर
इस मिलने और बिछड़ने के
अहसास में डूबकर
कभी जी कर, कभी मर कर
जीया है तुम्हे ऐ जिंदगी

कभी हँस कर, कभी रो कर
जीया है तुम्हे ऐ ज़िन्दगी

Friday 17 March 2017

काश कोई आईना..........

मुझे मेरे 'आप'  से रूबरू करा जाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता

मेरे प्यार,  मेरी कशिश,  मेरे जुनून और
मेरी दीवानगी को पहचान पाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता

मेरी नादानीयों,  मेरी नाकामियों और
मेरी  ग़फलतों को समझ पाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता

मेरे अहम,  मेरे बैर, मेरे द्वेष और
मेरे अंदर की सारी ख़ामियों को ज़ाहिर कर जाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता

मुझे मेरी गुस्ताखीयों में लिपटी कारगुज़ारियो और
दुनियादारी में गुंथी चालाकियों
से वाबस्ता करा जाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता

मेरी आँखों पर पड़े परदे,  मेरी रूह पर लगे पहरे और
ज़माने की दी हुई माथे की सिलवटों को मिटा पाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता

वो गये हुए साल,  वो बीते हुए पल और
उन सहमे हुए लहमों को वापस ला पाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता

मुझे मेरे 'आप'  से रूबरू करा जाता
काश कोई आईना अपना काम कर जाता 

Thursday 16 March 2017

चलो ढूंढते हैं.........

चलो ढूंढते हैं
कोई रात ऐसी
सुबह जिससे दूर ना हो

चलो ढूंढते हैं
कोई रास्ता ऐसा
जिसपे हरियाली हो, पतझड़ ना हो
कोई हमसफ़र ऐसा
मंज़िल पाने की जिसे जल्दी ना हो

चलो ढूंढते हैं
कोई मंज़िल ऐसी
जहां सच पे कोई बंदिश ना हो
कोई मुक़ाम ऐसा
आंधियों में भी जहां चिराग गुल ना हों

चलो ढूंढते हैं
कोई दुनिया ऐसी
जहां मुसकुराहटें हो,  शिकन न हो
कोई मज़हब ऐसा
जिसमें प्यार हो, बैर ना हो

चलो ढूंढते हैं
कोई रिश्ता ऐसा
एतबार हो,  शक ना हो
कोई प्यार ऐसा
जहां हार, जीत का जिक्र ना हो

चलो ढूंढते हैं
कोई दुश्मन ऐसा
जिससे रंजिश हो,  नफरत ना हो
कोई दोस्त ऐसा
ईमान पे जिसके,  कोई शक़ ना हो

चलो ढूंढते हैं
कोई खेत, खलिहान ऐसा
जिसमें मजबूर किसान ना हो
कोई शहर,  कस्बा ऐसा
जहां भूख से कोई बेहाल ना हो

चलो ढूंढते हैं
कोई रात ऐसी
सुबह जिससे दूर ना हो

देख कर दुनिया के.........

देख कर दुनिया के नज़ारे सारे
हमने इन्सानियत के नाम से तौबा कर ली

देख कर रंगत मयखानो की
जहां शामें जवां हुआ करती हैं
हमने वो न ली हुई कसम तोड़ कर
साक़ी और पैमाने से दोस्ती कर ली

हम ने देखी है शान शहीदों की चिताऔं की
जहां मेले आज भी लगा करते हैं
उन्होने छोड़ कर सुख और आराम अपने
देश के सपनों के सुपुर्द, जवानी कर दी

देख कर गरीबी के वो धुंधले उजाले
जहां भूख भी उदास सोती है
हमने उस एक पल की वजह से
ताउम्र, देखने से तौबा कर ली

देख कर मंदिर और शिवालय इनके
और मस्जिद और मज़ारें उनकी
हमने उस ऊपर वाले की रज़ा से
रस्म - ए - इबादत से तौबा कर ली

देखा है इंसान को लहु का प्यासा होता
अपनों की खुशियो को गिरवी रखता
देख कर दुनिया के नज़ारे सारे
हमने इन्सानियत के नाम से तौबा कर ली

देख कर दुनिया के नज़ारे सारे
हमने इन्सानियत के नाम से तौबा कर ली

Monday 27 February 2017

एक आदत सी बन गयी है.........

तुमसे मिलने को बेताब होना
और मिलते ही बेबाक हो जाना
एक आदत सी बन गई है

अपने सवालों को बुनना, बनाना
तुम्हारे जवाबों का मुरीद हो जाना
एक आदत सी बन गई है

तुम्हारी ना पे मर मिटना
और हां पे ज़िंदा हो जाना
एक आदत सी बन गई है

तेरी नज़रों के मस्त जाम पी के
मस्ती में लड़खड़ाना
एक आदत सी बन गई है

तुम्हारा नाम रेत पे लिखना
और उसे लहरों से मिटते देखना
एक आदत सी बन गई है

भीड़ में खुद को तन्हा पाना
और तन्हाई में तुम्हे भूल न पाना
एक आदत सी बन गई है

हवाा के हलके, मस्त झोकों मे
तुम्हारे कदमो की आहट तलाशना
एक आदत सी बन गई है

हसीन यादों को सीने से लगा के
तुम्हारे बारे में सोच के मुस्कुराना
एक आदत सी बन गई है

इबादत में तुम्हे याद करना
और याद करके आंसू बहाना
एक आदत सी बन गई है

ग़म में,  खुशी में,  जीवन के हर रंग में
अपने को तुम्हारे ही रंग में भीगा पाना
एक आदत सी बन गई है

अपनी जिंदगीयां, नदी के दो पाटों सी हैं
इस दूरी, इस मजबूरी को हर बार भुला देना
एक आदत सी बन गई है

प्यार,  मोहब्बत,  इकरार और इज़हार
इन जज़्बातों को तुम्हारा नाम दे देना
एक आदत सी बन गई है

पतझड़ में सूखे,  बेजान पत्तों पर चलना
और बहार का इंतज़ार करना
एक आदत सी बन गई है

एक आदत सी बन गई है........ 

Tuesday 7 February 2017

मज़ा तो तब है........

मज़ा तो तब है
जब अंखियां हो चार
जब दोनो में हो कऱार
जब सावन की पहली हो फुहार
जब प्यार का हो इज़हार
जब मिलने को वो भी हों बेक़रार

मज़ा तो तब है
जब खुद पे हो ऐतबार
जब ख्वाबों में हो मंज़िल हर बार
जब पैरों की बेड़ियाँ हो जा़र जा़र
जब मंज़िल को हो अपना इन्तज़ार
जब ऊपर वाला भी हो मेहरबान

मज़ा तो तब है
जब अपनों और परायों की हो जाए पहचान
जब दोस्तों और दुश्मनों को हम पायें जान
जब हर मिलने वाले को दे पाते 'अपने' का नाम
जब आस्तीन के सांपो का बुरा हो अंजाम

मज़ा तो तब है
जब रंगो की हो फुहार
और रंग हो चटकदार
जब दीपो की हो कतार
जब बागों में हो बहार
जब हर दिन हो एक नया त्योहार
जब कौमों में हो आपसी प्यार

मज़ा तो तब है
जब जनता को सियासी चालबाज़ियां आ जायें समझ
जब मुफलिसी, नफरत और अलगाववाद का हो अंत
जब विश्व शांति का बन जाये सबब़
जब दरियादिली भी हो एक मज़हब

मज़ा तो तब है......... 

Saturday 4 February 2017

तो कोई बात बने......

प्यार जब हद से गुज़र जाये तो कोई बात बने
दिलबर झूम के आगोश में आये तो कोई बात बने

साकी़ जब आंखों से पिलाये तो कोई बात बने
उम्र भर होश न आये तो कोई बात बने

दिल की बात बिन कहे समझ जाएं तो कोई बात बने
रुख से वो ज़रा नक़ाब हटायें ते कोई बात बने

आंखें जो असली सूरतें दिखायें तो कोई बात बने
प्यार जब हद से गुज़र जाये तो कोई बात बने

दोस्त कोई दिल में उतर जाये तो कोई बात बने
दुश्मन जब अपनी पे उतर आये तो कोई बात बने

ख्वाब कोई हकीकत में बदल जाये तो कोई बात बने
भूला गर भूल के घर वापस आये तो कोई बात बने

बारिश जब आंगन भिगो जाए तो कोई बात बने
मां जब सीने से लगा ले तो कोई बात बने

प्यार,  दोस्ती,  ईमान और इबादत
ये जज़्बात गर सुकून दे जायें तो कोई बात बने

प्यार जब हद से गुज़र जाये तो कोई बात बने..... 

Sunday 29 January 2017

तुम्हे बना के शेर...........

तुम्हे बना के शेर, मैं ग़ज़ल हो जाऊं.......

तुम्हे बना के सांसें, मैं ज़िंदगी हो जाऊं
तुम्हे बना के दिल, मैं धड़कन हो जाऊँ

तुम्हे बना के शमा, मैं परवाना हो जाऊं
तुम्हे बना के बुत, मैं काफिर हो जाऊं

तुम्हे बना के मंज़िल, मैं रहगुज़र हो जाऊँ 
तुम्हे बना के चिंगारी,  मैं आतिश हो जाऊं

तुम्हे बना के फूल, मैं खुशबु हो जाऊं
तुम्हे बना के ऊंचाई, मैं परिंदा हो जाऊँ

तुम्हे बना के दरिया, मैं मौज बन जाऊं
तुम्हे बना के हुस्न,  मैं नज़ाकत हो जाऊं

तुम्हे बना के शेर, मैं ग़ज़ल हो जाऊं.......

Tuesday 24 January 2017

दो दिन, दो मुलाकातें.......

दो दिन, दो मुलाकातें थीं
दो मुलाकातें, एक ज़िंदगी थी

दो दिल, एक धड़कन थी
दो ख्वाब, एक ताबीर थी
दो आवाज़ें, एक दुआ थी
दो रास्ते, एक मंज़िल थी
दो शरारतें, एक मासूमियत थी

दो मुलाकातें, एक ज़िंदगी थी

दो बादल, एक बिजली थी
दो आँखें, एक नमी थी
दो अफसाने, एक हकीकत थी
दो तमन्नायें, एक इबादत थी
दो दस्तूर, एक बगावत थी
दो इरादे, एक कामयाबी थी

दो मुलाकातें, एक ज़िंदगी थी

दो वायदे,  एक ऐतबार था
दो आगाज़, एक अंजाम था
दो उलफतें, एक जज़्बात था
दो बेचैनियां, एक सुकून था
दो ऐतराज, एक इक़रार था
दो आदाब, एक एहतराम था

दो मुलाकातें, एक ज़िंदगी थी
दो दिन,  दो मुलाकातें थीं......