Total Pageviews

Thursday 6 April 2017

मत पूछो कितने .....

हमें राहों में, थका हुआ मुसाफिर नहीं दिखता
उसके माथे से बहता पसीना नहीं दिखता
गोद में मचलता हुआ बालक नहीं दिखता
मुसीबतों से हारता इंसान नहीं दिखता
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
खुद के इश्क़ में कैसे जकड़े गए हैं हम
मत पूछो कितने मगरूर हो गए हैं हम

हमें मोड़ पर वो मासूम बच्चा नहीं दिखता
उसके माथे पे चमकता विश्वास नहीं दिखता
आँखों में झलकता बचपन नहीं दिखता
सबके लिए एक सा प्यार नहीं दिखता
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
बड़े होने की होड़ में अदने से हो गये हैं हम
मत पूछो कितने मगरूर हो गए हैं हम

हमें ढलता सूरज और चमकता चांद नहीं दिखता
कुदरत का वो गज़ब शाहकार नहीं दिखता
वो अंकुरित होता पौघा नहीं दिखता
पत्तों पर बिखरी ओंस नही दिखती
हमें अपने बंधन, अपनी बेड़ियां नही दिखती
अपने आप पे टिकी अपनी आंखें नही दिखती
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
जीवन की दौड़ में सहमे से रह गए हैं हम
मत पूछो कितने मसरूफ़ हो गए हैं हम

हमें धर्म,  जाति के नाम पे बांटने वाले नहीं दिखते
भाषा और छेत्र के नाम से बहकाने वाले नहीं दिखते
वो स्वर्ग से सुन्दर,  मातृभूमि नहीं दिखती
अपना वतन,  अपनी मिट्टी नहीं दिखती
एक ही गुलसितां की बुलबुलें नही दिखती
एक ही गंगा की,  मौजें नही दिखती
इस कदर इन ठेकेदारों के हाथ बिक गये हैं हम
अपने ही घर मे चहुँ ओर से घिर गए हैं हम
मत पूछो कितने मजबूर हो गए हैं हम

हमें  सिमटती नदियां और सिकुड़ते जंगल नहीं दिखते
वो पिघलते ग्लेशियर और उफनते सागर नहीं दिखते
बंजर होती ज़मीनें और खाली खलिहान नहीं दिखते
सदियों से कायम, मौसम के ये बदलते मिजाज नही दिखते
प्रगति पथ पर अराजक रूप से कदम बढ़ाते हम
निरंतर निर्लज्ज निरंकुशता ओढ़े हुए हम
निहित स्वार्थों की चादर मे लिपटे हुए हम
मत पूछो कितने  खु़दगर्ज़हो गए हैं हम

मत पूछो कितने ..... 

No comments:

Post a Comment