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Sunday 23 April 2017

खुद अपनी तक़दीर लिख सके...... ........

तक़दीर संवारने की उम्मीद में,
उम्र गुज़र जाती है, सजदे में ख़ुदा के
खुद अपनी तक़दीर लिख सके
वो तरकीब इज़ाद कर

शीशा तो टूट जाता है
पत्थर की चोट से
जो पत्थर को तोड़ सके
वो शीशा तलाश कर

कश्तीयां अक्सर डूबा करती हैं
तूफान के थपेड़ों से
जो खुद तूफ़ान पैदा कर सके
वो कश्ती तैयार कर

ज़िंदगीयां तबाह होते देखीं हैं
दुश्मनों के हाथ से
जो दुश्मनी करके भी, ज़िंदगी बना दे
वो दोस्त तलाश कर

ख्वाबों को हक़ीक़त मे
तब्दील होते देखा है
जो ख्वाबों से भी बेहतर हो
वो हक़ीक़त तैयार कर

मंदिरों और मस्जिदों में
ख़ुदा के बंदे तो खूब मिलते हैं
ख़ुदा से मिलने का रास्ता दिखा दे
वो बंदा तलाश कर

मुफ्त का ज्ञान बघारने वाले
हज़ार मिलते होंगे
कमजोर पर ज़ुल्म सबसे बड़ा अपराध और
मज़लूम की मदद सबसे उम्दा कर्म
ये हक़ीक़त जो समझा सके
वो ज्ञानी तलाश कर

राह की मुसीबतों से घबरा कर
अक्सर हौसले पस्त हो जाया करते हैं
जो मुसीबतों में से राह बना ले
वो हौसला तैयार कर

बड़ी हस्तियों से मिसालें ले कर
हज़ारों जिंदगीयां संवर गईं
जो खुद एक मिसाल बन जाए
वो ज़िंदगी दिखा जी कर

ये तो समझे कि
तमाम उम्र का लेखा जोखा
और नज़र आयें जन्नत के नज़ारे..
किसी मासूम बच्चे की हंसी में
जो जन्नत देख सके
वो नज़र तैयार कर

खुद अपनी तक़दीर लिख सके
वो तरकीब इज़ाद कर 

Thursday 6 April 2017

मत पूछो कितने .....

हमें राहों में, थका हुआ मुसाफिर नहीं दिखता
उसके माथे से बहता पसीना नहीं दिखता
गोद में मचलता हुआ बालक नहीं दिखता
मुसीबतों से हारता इंसान नहीं दिखता
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
खुद के इश्क़ में कैसे जकड़े गए हैं हम
मत पूछो कितने मगरूर हो गए हैं हम

हमें मोड़ पर वो मासूम बच्चा नहीं दिखता
उसके माथे पे चमकता विश्वास नहीं दिखता
आँखों में झलकता बचपन नहीं दिखता
सबके लिए एक सा प्यार नहीं दिखता
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
बड़े होने की होड़ में अदने से हो गये हैं हम
मत पूछो कितने मगरूर हो गए हैं हम

हमें ढलता सूरज और चमकता चांद नहीं दिखता
कुदरत का वो गज़ब शाहकार नहीं दिखता
वो अंकुरित होता पौघा नहीं दिखता
पत्तों पर बिखरी ओंस नही दिखती
हमें अपने बंधन, अपनी बेड़ियां नही दिखती
अपने आप पे टिकी अपनी आंखें नही दिखती
इस कदर अपने आप में खो गए हैं हम
जीवन की दौड़ में सहमे से रह गए हैं हम
मत पूछो कितने मसरूफ़ हो गए हैं हम

हमें धर्म,  जाति के नाम पे बांटने वाले नहीं दिखते
भाषा और छेत्र के नाम से बहकाने वाले नहीं दिखते
वो स्वर्ग से सुन्दर,  मातृभूमि नहीं दिखती
अपना वतन,  अपनी मिट्टी नहीं दिखती
एक ही गुलसितां की बुलबुलें नही दिखती
एक ही गंगा की,  मौजें नही दिखती
इस कदर इन ठेकेदारों के हाथ बिक गये हैं हम
अपने ही घर मे चहुँ ओर से घिर गए हैं हम
मत पूछो कितने मजबूर हो गए हैं हम

हमें  सिमटती नदियां और सिकुड़ते जंगल नहीं दिखते
वो पिघलते ग्लेशियर और उफनते सागर नहीं दिखते
बंजर होती ज़मीनें और खाली खलिहान नहीं दिखते
सदियों से कायम, मौसम के ये बदलते मिजाज नही दिखते
प्रगति पथ पर अराजक रूप से कदम बढ़ाते हम
निरंतर निर्लज्ज निरंकुशता ओढ़े हुए हम
निहित स्वार्थों की चादर मे लिपटे हुए हम
मत पूछो कितने  खु़दगर्ज़हो गए हैं हम

मत पूछो कितने .....