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Wednesday 17 May 2017

आज सुबह फिर कुछ.........

आज सुबह फिर कुछ थकी सी थी
रात शायद कुछ जगी सी थी

सितारों से कई गिले शिकवे थे करने
चाँद से भी तो गुफ्तगू बाक़ी थी

जुगनुओं से रौशनी उधार लेना था बाक़ी
अपने सपनों से भी निभानी वफादारी थी

महकती यादों के मोतियों को था पिरोना
दिल में छिपी तस्वीर, ज़ाहिर होना बाक़ी थी

इससे पहले कि अफसानों में हमारे नाम चलें
प्यार की मंज़िल तो अभी पाना बाक़ी थी

छिप के मिलना, मिल के छिपना, ये खेल अब और नहीं
दीवानापन दुनिया पर ज़ाहिर करने की रस्म बाक़ी थी

हिम्मत, जोश, दीवानगी या झिझक
ऐसा कुछ था, जिसमे क़सर बाक़ी थी

न जाने कब रात गयी, कब भोर हुई
आंखों पर नींद की दस्तक, अब भी होना बाक़ी थी

आज सुबह फिर कुछ थकी सी थी
रात शायद कुछ जगी सी थी......

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